उम्र थी वर्ष नव की,
देखने की ललक थी शहर को
दु:ख था गाँव से दूर होने का
बस! पहुँच गया शहर।
तब गाँव और शहर के बीच
आंकता था दोनों को फांसले को।
दूर दिखने लगता था शहर।
अपरिचित मिलते थे लोग।
अब न वो गाँव रहा,
और न रहा शहर।
जाता हूँ अब अपने गाँव,
ताजे हो जाते
पलानी से टपकते बारिस के बूंद।
ताजे हो जाते माँ के दु:ख,
बस! बदल गये गाँव
बदल गई पलानी,
नहीं बदला तो मात्र माँ का प्रेम।
है मेरी खुशी माँ की प्रसन्नता में,
मैं छोड़ नहीं पाता गाँव को
भूल नहीं पाता शहर को,
मिट गई गाँव-शहर की दूरी।
नहीं रहा दोनो के बीच फांस़ला
आज गाँव में शहर देखता हूँ
और शहर में अपनों को।
( प्रकाश प्रियांशु )