-प्रोफेसर कैलाश कुमार झा, रिसर्च स्कॉलर (अंग्रेजी), सहायक प्रोफेसर (एएनडी कॉलेज, शाहपुर पटोरी, समस्तीपुर):

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मैं अपने इस लेख में जिस जल समाधि की बात कर रहा सुनने में चाहे यह सामान्य लगे परंतु जब इसकी गहराई और प्रसंग के अंतःस्थल में प्रवेश करेंगे तो यह अत्यंत मर्मस्पर्शी एवं भावनाओं को झकझोर कर रख देता है। मैं यहां भावना शब्द का प्रयोग मानवीय भावनाओं से जोड़कर नहीं कर रहा क्योंकि इस जल समाधि के पीछे मानव क्रूरता ही जिम्मेदार है। हालांकि किसी एक की गलती के पीछे सारे जनमानस की भावना को कटघरे में खड़ा करना भी कहीं से न्यायोचित भी नहीं है परंतु अंग्रेजी में एक कहावत है ‘मॉर्निंग सोज द डे’ यानी अगर मानव के क्रूरता का ये आलम रहा तो जंगल के कुछ शेष बचे दुर्लभ जीवों के जल्द ही अवशेष मात्र मिलेंगे। मेरी लेखनी सदैव साहित्यपरक रही है परंतु जब केरल में गर्भवती हथनी की नृशंस हत्या के बारे में पढ़ा तो सहसा इस संबंध में कुछ लिखने को उद्वेलित हो उठा। यह घटना की चर्चा इस आलेख में कर रहा हूं उसकी सूचना समाचार पर एवं मीडिया के अन्य साधनों से प्राप्त हुआ है। ऐसा नहीं है कि यह इस तरह की प्रथम घटना है जब किसी वन्यजीव को मानव ने अपना शिकार बनाया हो, परंतु जो तरीका इस बार अपनाया है वह इनोवेटिव है। संयोग से यह घटना प्रधानमंत्री के उस संबोधन के कुछ दिन पश्चात की है जब उन्होंने भारतीय जनमानस को ‘आत्मनिर्भर’ बनने को कहा जबकि मानव तो आजन्म ही पराश्रित रहा है, कभी जंगलों पर कभी जंगल की शोभा बढ़ाने वाले वन्यजीवों पर। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यह घटना देश के उस राज्य में घटित हुई जो खुद को सर्वाधिक साक्षर राज्य कहता है। परंतु क्या उपयोग ऐसी साक्षरता और शिक्षा का जो इस प्रकार अमानवीय कृत्य पर मूकबधिर बना हो। शिक्षा तो हमें अंधकार युग से प्रकाश की ओर ले जाती है तो क्या यही वो युग है जिसकी ये शुरुआत है। मेरा बोलना कुछेक लोगों को शायद व्यक्तिगत चोट पहुंचा रहा हो परंतु क्या यह सत्य नहीं कि हम अपनी मानवीयता को आधुनिकता और भौतिकवादी के इस दौड़ में पीछे छोड़ते जा रहे हैं। वर्तमान प्रकरण को अगर आप ‘कोरोना’ के साथ जोड़कर देखें तो शायद यह कुछ स्पष्ट हो। जो चिकित्सक, नर्स, पुलिस वाले, सफाई कर्मी इस ‘कोरोना काल’ में हमारी सेवा में लगे हैं, कुछ आतंकवादी (मैं उन्हें आतंकवादी की श्रेणी में ही रखूंगा) उन पर लाठी व पत्थर बरसा रहे हैं।‌ क्या ये मानवता का लोप नहीं? मुझे पता है वे – ऐब कोई नहीं परंतु जब सिर्फ ऐब- ही- ऐब हो तो प्रश्न तो उठेगा। कुछ लोगों का तर्क है कि जानवर उत्पात मचाते हैं, मैं पूछता हूं क्या यह उत्पात आपकी उन उत्पातों से ज्यादा है जो आपने उनके पारंपरिक और मूल निवास स्थानों को पहुंचाया है। अगर वन्यजीव आज हमारे घरों तक पहुंच रहे तो उसके पीछे कारण यह है कि हमने उनके घरों को बर्बाद कर रखा है। अनानास में बम बांधना भी उसी प्रकार की कायरता और अमानवीयता की श्रेणी में रखा जा सकता है जिस श्रेणी में पाकिस्तानी आतंकियों का भारतीय सेनाओं का सर कलम करना। इनके साथ भी वही अपेक्षित है जो उन आतंकियों के साथ, बल्कि मैं तो कहूंगा उससे भी ज्यादा क्योंकि यह तो बिना किसी लड़ाई, बिना किसी अतिक्रम, बिना किसी क्षति के ही शिकार किए जा रहे। अभी 2 दिन पहले विश्व पर्यावरण दिवस पर जहां ढेरों पोस्ट ‘सेव ट्री सेव लाइफ’ के लगे दिखें तो क्या यह जीवन सिर्फ मानवों के हैं? क्या जंगलों की भव्यता बिना वन्यजीवों के संभव है? या हम वहां भी रोबोटिक या कृत्रिम जानवर बैठाने की सोच को विकसित कर रहे हैं।
इस घटना पर यदि हम मानवीय दृष्टिकोण से विचार करें तो पता चलता है कि इसे सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया है क्योंकि केरल में इससे पूर्व भी एक ऐसी घटना घटित हो चुकी है जैसा कि मुझे ज्ञात है। ऐसी घटनाएं मानव की सोच में बढ़ रहे विकृति को प्रदर्शित करती प्रतीत होती है। जिस वन्य अधिकारी ने इस घटना को सर्वप्रथम उल्लिखित किया उसने जिस प्रकार इस घटना को प्रेषित किया वह हमें सोचने पर विवश कर रही है कि क्या हम सच में बौद्धिक स्तर पर विकसित हो चुके हैं? जब लगभग 100 फीसद साक्षरता वाले प्रदेश के व्यक्ति की सोच इस स्तर तक गिर सकती है तो अपेक्षाकृत कम साक्षर प्रदेश में स्थिति और भी भयावह हो सकती है। हो सकता है इस प्रकार की घटनाएं घटित हुई हो परंतु वहां कृष्णा मोहन नामक कोई व्यक्ति ना रहा हो जो इसे प्रकाश में लाएं। वर्तमान घटनाक्रम वन्य जीव संरक्षण अधिनियम या इससे जुड़ी अन्य नियमों के अनुपालन पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। जरूरत है इन नियमों में और कठोरता एवं उसे सशक्त रूप से लागू करने का, वरना ऐसी जल समाधि निरंतर चलती रहेगी और हम जैसे लोग एक छोटी सी लेख लिख कर उस पर अपना तथाकथित दुख व्यक्त कर दिया करेंगे। जरूरत है मानव को वन्यजीवों की महत्व एवं उनके जीवन के महत्व को समझने की। हमें यह जरूर समझना होगा कि हमारे सोचने समझने की शक्ति ही हमें जानवरों से अलग करती है और यदि हम इसी तरह के कुकृत्य करते रहे तो हम खुद को उसी जानवर के झुंड में खड़ा पाएंगे, कम से कम बौद्धिक स्तर पर तो अवश्य।
हमारी तो संस्कृति रही है पेड़- पौधे एवं वन्यजीवों के पूजने की फिर हमारी मानसिकता इतनी कैसे गिरी कि हम उनकी नृशंस हत्या पर उतर आए। हम एक ओर तो इस घटना पर दुख जता रहे परंतु दूसरी और अपनी भौतिकवादी संतुष्टि के लिए असंख्य निरीह पशुओं की हत्या कर रहे हैं। 70 के दशक में आनंद बख्शी ने लिखा था- जब जानवर कोई इंसान को मारे, कहते हैं दुनिया में बहसी उसे सारे…। एक जानवर की जान इंसान ने ली है चुप क्यों है संसार…?
आज लोग चुप तो कम हैं मगर चुपचाप हत्या ज्यादा कर रहे हैं। अंग्रेजी में कहावत है ‘टू एरर इज ह्यूमन’ अर्थात गलती करना मानव का स्वभाव है परंतु यहां ह्यूमन, इन ह्यूमन बर्ताव पर उतर आया है तो आवश्यकता है कि इस पर ठोस कदम उठाए जाएं तथा इन दुर्लभ जीवों का संरक्षण प्राप्त हो। ऐसी व्यवस्था हो कि इन्हें मानवों के इस अमानवीय वातावरण में आना ही ना पड़े। ऐसी कोशिश की जानी चाहिए कि फिर किसी निरीह, गर्भवती, विलुप्तप्राय जानवर को मानवों की कुकृत्य के कारण जल समाधि ना लेनी पड़े।

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