ऐ शहर मत इतना इतरा

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ऐ शहर मत इतना इतरा तेरे
चकाचौंध नगर पे
मेरे गाँव की मिट्टी की लेपन है
लगा तेरे हर बसर पे ।
गांव के ही गर्भ से है तेरे
जैसों का जन्म
आज भी तुम्हें पालन का
बीड़ा है हमारे कन्धे पे ।
माना कि आज हर ऐशोआराम
जुगाड़ है तेरे हाथ
पर हमने ही पसीने बहायी है
तेरे हर ख्वाहिश पे ।
हमने झेली है कई अपदाऐ
तुझपे ऑच न आए
हमने भूख को भी जलाया
तेरे आहः के आवाजाही पे ।
तेरे लिए अस्पताल मैंने ही बनाई
और दवा भी
हमने तो गाँव की ही मिट्टी को
लगाया है अपने जख्मो पे ।
आज भी तेरे चाहतो के
बीज गांवो में फूटते है
उस बीज को अनाज बनाना
टीका है हमारे ही बुवाई पे ।

कवि _सूरज पाशवाँ
टीटागढ़ ,पंश्चिम बंगाल

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