फिर एक अलग अंदाज़ में रचना
बालपन में गिरा, झूले से,
बचपन में गिरा, साईकल से,
जवानी में गिरा, नादानी से।
समझ पकड़ी तो,
राहों में गिरा,
रोजगार को,
बाजारों में गिरा,
दौलत को,
महलो में गिरा,
प्यार को।
कभी आपदा में गिरा,
कभी रिश्तों में गिरा,
कभी शब्दों से गिरा,
कभी नजरों से गिरा।
इंसान कितना गिरता है,
और गिरता ही जा रहा है।
स्वरचित आनंद दाधीच © बेंगलोर.